प्रायः देखने में आया है कि आज की भौतिक वादिता में मनुष्य आजीविका के चक्कर में अपने कर्तव्यों व संस्कारों से विमुख होता चला जा रहा है, परस्पर स्पर्धा में बने रहने के लिये समय का अभाव व चुनौतियाँ तीव्र गति से बढ़ती जाती है विभिन्न परेशानियों व कठिनाइयों से बचने के लिए ही वर्तमान में वह ईश्वर का स्मरण करता है । शायद इस बात का आभास हमारे दिव्यद्रष्टा ऋषि – मुनिओ को था, तभी उन्होंने कठोर तप व साधना के बल पर विभिन्न शास्त्रों का निर्माण किया जिनका अनुसरण करके मनुष्य अपना जीवन चक्र समझ सकता है जैसे वेद, ग्रन्थ, उपनिषाद आदि। इन्ही में ज्योतिष शास्त्र भी प्रमुख है जो नवग्रहों के माध्यम से मनुष्य के कर्मों का लेखा – जोखा प्रस्तुत करते है, आने वाले समय की दिशा व भविष्य तय करतें हैं, उसके गुण – दोषों का विवरण देते है ।
ज्योतिष शास्त्र में कुण्डली में उपस्थित ग्रहों की चाल व स्थिति कई प्रकार के योगों का निर्माण करती है जो हमारे द्वारा किये गए कर्मो पर आधारित होती है । योग कोई भी हो यदि हमारे कर्म अच्छे है तो ग्रह हमें शुभ फल देते है व कर्म बुरे है तो कष्ट तो हमें झेलना ही है साथ ही ग्रह भी हमारे कर्मो के आधार पर ही सहयोग करते है ।
इसी प्रकार ज्ञात-अज्ञात रूप में किये गए बुरे कर्मो पर हमारी पत्रिका में कालसर्प नामक योग का निर्माण होता है जो मुख्य रूप से राहु-केतु द्वारा उत्पन्न होता है ।
राहु – केतु को क्रूर ग्रह माना जाता है, जो मानव के जीवन में विघ्न उत्पन्न करते है किन्तु जब हम हमारे इष्ट का, गुरु का, माता-पिता का, व गौमाता का आशीर्वाद प्राप्त करते है तो ये क्रूर ग्रह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, किन्तु आज के युग में हम माता – पिता, गुरु, इष्ट व गौमाता का आशीर्वाद लेना भूलते जा रहे है, स्वार्थवश राष्ट्र व समाज की सेवा कर रहे है, अपने द्वारा दिए जाने वाले दान का ढिंढोरा पीट रहे है, अपनी आय बढ़ाने के लिये अपने संस्कारो का दुरूपयोग करते हुए विभिन्न परेशानियों का सामना कर रहे है । कालसर्प योग के नाम से ही भय उत्पन्न होता है । कल+सर्प काल अर्थात वह समय जिससे मृत्यु भी भयभीत रहती है और सर्प जिनकी कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते है ।
किन्तु डरता वही है जिसने कोई पाप किया हो ।
हमारी भारतीय संस्कृति में सर्प का विशेष महत्त्व है, हमारी इस पृथ्वी को तो स्वयं शेषनाग ने अपने मस्तक पर धारण किया हुआ है । भगवान शिव ने तो उन्हें अपने गले में धारण किया है । कई प्रांतों में सर्प की पूजन का विशेष विधान है, क्योकिं सर्प पाताल के राजा कुबेर के खजाने के रक्षक है । किन्तु इस योग का नाम कालसर्प क्यों पड़ा क्योकिं राहु और केतु दो क्रूर ग्रह है सर्प मुख में राहु का वास व पुंछ में केतु का वास माना गया है ।
हमारी जन्म कुण्डली में जब ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य में आ जाते है तो पत्रिका पूर्ण कालसर्प से युक्त हो जाती है । किन्तु कोई ग्रह बाहर हो तो पत्रिका में उसकी स्थिति देखकर आंशिक कालसर्प दोष का अनुमान लगाया जा सकता है । वैसे कालसर्प दोष मुख्य रूप से 12 प्रकार के बताए गए है, संसार का कोई ऐसा व्यक्ति न हो जो इससे प्रभावित न हो किन्तु जैसा पूर्व में बताया गया है कि कर्मों के आधार पर ग्रह व्यक्ति को फल देते है अतः हर दोष बुरा प्रभाव नहीं देता, कई बार लाभ की स्थिति के साथ व्यक्ति को मान – सम्मान, आयु, बल, बुद्धि, ऐश्वर्या भी प्रदान करता है ।
कालसर्प दोष के लक्षण :-
1. बुरे स्वप्न आना
2. अकारण मन में भय होना
3. रातों में डरना
4. नींद में चमकना
5. सर्प दिखाई देना
6. मृत्यु देखना
7. किसी साये का पास में खड़े होने का आभास होना
8. सफलता के अंतिम पड़ाव में पहुँचने के बाद विफलता
9. अनचाही बात पर विवाद बढ़ना
10. शत्रुओं की संख्या वृद्धि
11. किसी असाध्य रोग का ईलाज होने पर भी फायदा न होना इत्यादि
ये सब कालसर्प योग को दर्शाता है ।
जिस प्रकार हमें कोई रोग होता है हम किसी कुशल चिकित्सक के पास जाकर उसका निदान करवाते है उसी प्रकार यह योग भी एक रोग जैसा है जिसका निवारण कुशल वैदिक विद्वान द्वारा नियत तिथि व उचित स्थान पर करवाने से हमारा जीवन खुशहाल व्यतीत कर सकते है ।
अवंतिका जो बाबा की नगरी है उसमें यह अनुष्ठान हमारे द्वारा वैदिक पद्धति से पूर्ण विधि-विधान व कुछ विशेष यंत्रो व सूक्तों के द्वारा सम्पादित किया जाता है जो शीघ्र ही शुभ परिणाम देता है ।